दहेज़ प्रथा के खिलाफ - सादगी से विवाह

Admin | 11/24/2025 05:10 am | Social Service

post-images

सदियों से भारतीय सभ्यता में विवाह के अवसर पर वधु पक्ष द्वारा वर पक्ष को धन, आभूषण, वाहन आदि उपहार स्वरूप प्रदान करने की परंपरा चली आ रही है। मूल रूप से यह रीति इस उद्देश्य से विकसित हुई थी कि नवविवाहित वधु का नए घर में सम्मान स्थापित हो सके और पति को आर्थिक रूप से एक सुदृढ़ आधार मिल सके। परंतु आज के आधुनिक युग में, जहाँ महिला सशक्तिकरण ने एक व्यापक और प्रभावशाली स्वरूप ग्रहण कर लिया है, और जहाँ महिलाएँ पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर जीवन के हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का उजियारा फैला रही हैं, यह प्रथा न केवल अप्रासंगिक हो चुकी है, बल्कि अनेक स्तरों पर घोर हानिकारक भी सिद्ध हो रही है।

वर पक्ष का वधु के परिवार पर दहेज का दबाव डालना, ताकि समाज में उनकी ‘नाक ऊँची’ बनी रहे, आजकल आम चर्चा का विषय बन चुका है। ऐसे किस्से प्रतिदिन सुनने को मिलते हैं, जो किसी भी सभ्य समाज के गाल पर एक करारा तमाचा हैं। विवाह जैसा पवित्र और भावनात्मक संबंध जब सुनार की तराज़ू पर तौला जाने लगे, तो यह स्थिति किसी भी रूप में शुभ संकेत नहीं मानी जा सकती। नया जोड़ा, जो अभी एक-दूसरे की आदतों, विचारधारा और जीवन दृष्टि से परिचित होने की प्रारम्भिक अवस्था में होता है, उनके बीच दहेज का विषय एक गहरा और खतरनाक अंतर खड़ा कर सकता है।

युवाओं में शिक्षा और करियर की ओर अपने बल को स्थानांतरित करने की जो मूल प्रेरणा होनी चाहिए, जब वही ‘तगड़ा दहेज’ प्राप्त करने की मानसिकता में बदलने लगती है, तो जीवन से शांति और संतोष का उखड़ जाना स्वाभाविक हो जाता है। आत्मिक स्तर पर विवाह संबंधों से कहीं ऊँचा स्थान आत्म-सम्मान, मानवता और आध्यात्मिक मूल्यों का होता है – यही संदेश डेरा सच्चा सौदा के गुरु राम रहीम ने अनेकों बार समाज को दिया है। न जाने कितनी सदियों की मानसिक कंडीशनिंग ने युवाओं को इस भ्रम में जकड़ रखा है कि दूसरों के धन पर निर्भर रहकर जीवन की शुरुआत करनी है, जबकि वही युवा, यदि प्रण कर लें, तो अपनी फुर्ती, उमंग और उत्साह के बल पर न जाने कितने विवाहों के बराबर धन अपनी मेहनत से जुटाने की क्षमता रखते हैं।

आज पनप रही लैंगिक असमानता की जड़ में भी दहेज प्रथा ही किसी ‘प्राचीन नानी’ की तरह बैठी दिखाई देती है। जब घर में लक्ष्मी-स्वरूप एक बेटी जन्म लेती है, तो उसी क्षण से उसके दहेज का अनुमान लगाकर उसके अस्तित्व पर एक अदृश्य बोझ रख दिया जाता है। पूरा बचपन और किशोरावस्था वह लड़की एक मौन प्रतिरोध, एक अदृश्य भेदभाव का सामना करती रहती है। ‘पराया धन’ समझे जाने के कारण उसकी शिक्षा पर भी पर्याप्त निवेश नहीं किया जाता, फलस्वरूप उसके जीवन की दिशा प्रायः ससुराल की रसोई और चूल्हे के सामने ही सिमट कर रह जाती है। इस एक प्रथा ने बेटी और माँ–बाप के बीच की भावनात्मक निकटता में भी दूरी की दीवार खड़ी कर दी है।

हद तो तब हो जाती है, जब यह शिकायतें और तुलनाएँ विवाह के बाद भी समाप्त नहीं होतीं। किसकी बहू कितना सामान, कितने गहने और कितनी सुविधा-सामग्री लेकर आई, यह विषय गाँव–कस्बों में चर्चा का प्रिय माध्यम बन गया है। चौराहे से गुजरते किसी पुरुष को लोग कितना सम्मान देंगे, यह कई बार उसके व्यक्तिगत गुणों से अधिक, घर में आई नई अलमारी, गाड़ी और बर्तनों पर निर्भर कर दिया जाता है। विवाह के वर्षों बाद भी यदि किसी और घर में अपेक्षित रूप से ‘अधिक दहेज’ पहुँचे, तो सास अपनी ही ‘बेटी समान बहू’ पर तंज कसने में पीछे नहीं रहती। यहाँ तक कि अनगिनत उदाहरणों में बहुओं को शारीरिक प्रताड़ना देने, जलाने या बेरहमी से मार डालने जैसी अमानवीय घटनाएँ सामने आई हैं, जो साफ दर्शाती हैं कि इस प्रथा की पीठ पर खून के गहरे निशान दर्ज हैं।


जब एक पिता समाज में ऐसी घटनाएँ बार-बार होते देखता है, तो उसका मन दहशत और असुरक्षा से भर जाना स्वाभाविक है। स्वस्थ संतान की प्रार्थना की जगह ‘स्वस्थ लड़का’ होने की दुआ आम हो जाती है, और जब एक बेटी जन्म लेती है, तो कई संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों को उसके भविष्य की पीड़ा झेलने देने से बेहतर विकल्प, उसके कोमल मुँह में काँच के टुकड़े डाल देना तक प्रतीत होने लगता है। उत्तर भारत के राज्य जैसे राजस्थान और हरियाणा में कन्या भ्रूण हत्या एक समय लगभग सामान्य सामाजिक ‘रिवाज़’ का भयानक रूप ले चुकी थी। लिंग अनुपात के आँकड़े देश के सामने भयावह तस्वीर रख रहे थे – मानो बेटियाँ बाघ की तरह विलुप्त होने लगी हों। कई गाँव ऐसे थे जहाँ वर्षों-वर्षों तक कोई बारात ही नहीं पहुँची। यदि 2011 की जनगणना को मानें तो हरियाणा में हर 1000 पुरुषों के मुकाबले केवल 879 महिलाएँ शेष रह गई थीं।

लेकिन इंसानियत का असली स्वरूप हमेशा समाधान की दिशा में काम करने पर ही जोर देता है। आज अनेक संस्थाएँ इस सामाजिक कुरीति के विरुद्ध डटकर खड़ी हैं और विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग तरीकों से राहत व जागरूकता पहुँचा रही हैं। इन्हीं में से एक है डेरा सच्चा सौदा, जो हरियाणा के सिरसा जिले में स्थापित है और वर्तमान समय में राम रहीम के मार्गदर्शन और नियमों के अनुसार संचालित हो रहा है।


संस्था के अनुयायी आज 7 करोड़ से भी अधिक बताए जाते हैं, इसीलिए यहाँ से निकले संदेश 1948 से समाज में ठोस परिवर्तन लाने में सक्षम रहे हैं। डेरा, नशा मुक्ति और महिला सशक्तिकरण जैसे विषयों पर वर्षों से ज़मीनी स्तर पर काम कर रहा था, और समय के साथ दहेज प्रथा को समाप्त करना भी इसके प्रमुख और अत्यावश्यक उद्देश्यों में शामिल हो गया। राम रहीम अक्सर कहते हैं कि जिस परंपरा में वधु के माता-पिता अपनी खुशी और सामर्थ्य से आशीर्वाद रूपी उपहार देकर बेटी को जीवन के नए पड़ाव के लिए तैयार करते थे, उसी को आज धन वसूलने और दबाव डालने के साधन के रूप में विकृत कर दिया गया है। ऐसा नीच कर्म न केवल गैर-कानूनी है, बल्कि व्यक्ति के भीतर छिपे राक्षसी स्वभाव का दर्पण भी है।

राम रहीम ने स्पष्ट रूप से दहेज जैसी कुरीतियों से पूर्णतः किनारा करने पर ज़ोर दिया है—न देना है, न लेना है। आज डेरा सच्चा सौदा में अत्यंत सादगी से विवाह कराए जाते हैं, जहाँ न केवल दहेज का कोई स्थान नहीं, बल्कि दिखावे और फिजूलखर्ची से भरे महँगे विवाह आयोजनों से भी लोगों को दूर रहने की प्रेरणा दी जाती है। डेरा मानता है कि यह सादगी, राम-नाम से जुड़ने के बाद व्यक्ति के भीतर स्वतः जाग्रत होने वाला परिवर्तन है, इसलिए यहाँ के अनुयायी राम-नाम जप को अत्यंत महत्त्व देते हैं।

जो घर आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हैं कि वे बड़े खर्च के साथ विवाह आयोजन कर सकें, ऐसे परिवारों के लिए डेरा स्वयं विवाह की पूरी जिम्मेदारी उठाता है, और हर महीने हजारों शादियाँ सिरसा में इसी सादगीपूर्ण एवं दहेज-मुक्त ढंग से सम्पन्न होती देखी जा सकती हैं। समाज सुधार में अच्छी संगति की शक्ति क्या कर सकती है, यह डेरा सच्चा सौदा समय-समय पर सशक्त रूप से सिद्ध करता आया है।

उम्मीद की जा सकती है कि इसी प्रकार दहेज के विरुद्ध यह जंग आगे भी निरंतर जारी रहेगी, और जो हजारों महिलाएँ इस कुरीति की शिकार बनीं, उनके लिए यह प्रयास एक भावपूर्ण, जीवंत और सार्थक श्रद्धांजलि बनकर इतिहास के पन्नों पर दर्ज होगा।

Related Posts

Comment

    Not Found!!

    Sorry! No comment found for this post.

Need to login for comment!