मध्यप्रदेश के बीहड़ क्षेत्र का कुख्यात दस्यु मोहर सिंह वहाँ ऐसा नाम था, जिसके सामने केवल बंदूक का ही कानून चलता था। हत्या, डकैती और अपहरण के सैकड़ों मुकदमों में वह वांछित था। लेकिन इसी मोहर सिंह का जीवन संघर्ष से भरी ऐसी दास्तान बना, जिसका अंतिम अध्याय समाज के लिए प्रेरणास्वरूप बन गया।
मोहर सिंह कैसे बना "डाकू"?
मोहर सिंह का वास्तविक नाम मोहन सिंह था। उसका जन्म मध्यप्रदेश के बीहड़ क्षेत्र स्थित बिसूली गाँव में हुआ था। बचपन से ही वह एक सफल पहलवान बनने की आकांक्षा रखता था, परंतु परिस्थितियों ने उसका रास्ता ही बदल दिया।
परिवारिक संपत्ति को लेकर उत्पन्न विवाद में उसके चचेरे भाइयों ने छलपूर्वक उसकी ज़मीन का हिस्सा हड़प लिया। जब उसने इसका विरोध किया, तो गाँव वालों ने भी उसका साथ देने के बजाय उसे ही अपमानित करते हुए गंभीर रूप से पीटा। इस गहन अपमान और क्रोध से व्यथित होकर उसने आवेश में आकर गोली चला दी। इसके बाद पुलिस की गिरफ्त से बचने के लिए वह चंबल के बीहड़ों में जा छिपा।
वहाँ पहुँचकर उसने विभिन्न डाकू गिरोहों के साथ मिलकर कार्य करना प्रारंभ कर दिया। धीरे-धीरे अपराध की दुनिया में उसका प्रभाव बढ़ता गया और कुछ समय पश्चात् उसने अपना स्वयं का गिरोह बना लिया, जिसमें लगभग 150 शस्त्रधारी डकैत उसके अधीन सम्मिलित थे।
मोहर सिंह के अपराध
मोहर सिंह पर 300 से अधिक आपराधिक मामले दर्ज थे। इनमें लगभग 80 मुकदमे हत्या से संबंधित थे, जबकि लगभग 350 प्रकरण अपहरण से जुड़े हुए बताए जाते हैं। वह 150 डकैतों के गैंग का सरगना था। इसकी गैंग मुख्यतः अमीर व्यक्तियों का अपहरण करके भारी-भरकम फिरौती वसूलने के लिए कुख्यात थी।
कहा जाता है कि एक बार दिल्ली के एक मूर्ति-तस्कर को उसकी गैंग ने अगवा किया, जिसे 26 लाख रुपये की भारी फिरौती लेकर छोड़ा गया। चंबल के विस्तृत इलाक़ों में उसके नाम को ही कानून समझा जाता था और लोग उसकी दहशत से काँपते थे।
मोहर सिंह का जीवन कैसे बदला?
सन 1972 में मोहर सिंह ने एक ऐतिहासिक कदम उठाया। उसने महात्मा गांधी जी की तस्वीर के समक्ष अपने साथियों सहित आत्मसमर्पण करने का निर्णय लिया और स्वयं को पुलिस के हवाले कर दिया। इसके पश्चात् उसे कारागार में रखा गया और उसकी सुनवाई भी जेल परिसर में ही संपन्न होती रही। परंतु जेल जीवन के दौरान उसके अंदर एक गहरा आंतरिक परिवर्तन प्रारंभ हो चुका था, जिसने आगे उसका संपूर्ण जीवनमार्ग बदल दिया।
21 मार्च 1997 को डेरा सच्चा सौदा, सिरसा के प्रमुख संत बाबा राम रहीम सिंह द्वारा मध्यप्रदेश के मेहगाँव में सत्संग का आयोजन किया गया। उस दिन मोहर सिंह ने पूरे बाज़ार के व्यापारियों से दुकानें बंद कर सत्संग में शामिल होने का आग्रह नहीं, बल्कि प्रभावपूर्ण निर्देश दिया। लोग शुरुआत में आश्चर्यचकित रह गए, क्योंकि जिस व्यक्ति के नाम से लोग पहले सहमे रहते थे, वही अब लोगों को आध्यात्मिक प्रवचन सुनने के लिए प्रेरित कर रहा था। मोहर सिंह के कहने पर लगभग 7,500 लोगों ने उस सत्संग में उपस्थित होकर प्रवचन सुना और बाबा राम रहीम से नामदान (दीक्षा) ग्रहण की।
सत्संग से अत्यंत प्रभावित होकर मोहर सिंह ने गुरु जी के समक्ष अपने पूर्व अपराधों के लिए हृदय से क्षमा याचना की और संकल्प लिया कि अब शेष जीवन वह ज़रूरतमंदों की सहायता और समाज की सेवा में समर्पित करेगा। इसके बाद वह सक्रिय रूप से मानवता-सेवा और लोककल्याण के कार्यों में जुट गया।
निष्कर्ष
मोहर सिंह का जीवन इस बात का सशक्त उदाहरण है कि परिस्थितियाँ व्यक्ति को कितना भी भटका दें, परंतु यदि अंतःकरण जागृत हो जाए और सही सद्गुरु का मार्गदर्शन मिल जाए, तो एक खूंखार डाकू भी नेकी और सेवा के मार्ग पर चल पड़ता है। जिस व्यक्ति ने कभी बंदूक के दम पर लोगों में दहशत फैलाई, वही आगे चलकर परमात्मा के नाम से हज़ारों लोगों को जोड़ने का माध्यम बन गया।
उनकी जीवनयात्रा यह संदेश देती है कि अपराध के गहरे अंधकार से भी लौटकर इंसान पुनः सदाचार, आध्यात्मिकता और मानव सेवा की रोशनी में प्रवेश कर सकता है—यदि वह सचमुच परिवर्तन के लिए तैयार हो।
Comment
Not Found!!
Sorry! No comment found for this post.
Need to login for comment!